Friday, 6 November 2020

क्या रोजगार-विकास जाति के जंजाल पर भारी पड़ेगा?

जाति बिहार की राजनीति की सच्चाई है। पिछले विधानसभा चुनाव की तरह इस बार भी दलों के बीच जातीय समीकरण को साधने की होड़ है। दो चरणों के संपन्न हुए मतदान में भी यही लगता है कि जातीय समीकरण अब भी बड़ा मुद्दा है। हालांकि जातीय समीकरण और सुशासन बनाम जंगल राज जैसे मुद्दों के बीच राज्य की सियासत में अरसे बाद रोजगार के सवाल भी तैर रहे हैं। सभी दल जोर-शोर से रोजगार के मुद्दे उठा रहे हैं और रोजगार के वादे कर रहे हैं। अप्रैल में जब लाखों की संख्या में प्रवासी मजदूरों का महानगरों से पलायन हुआ तब पहली बार स्थानीय स्तर पर रोजगार की कमी, उद्योग-धंधों की कमी का सवाल उठा। दूसरा कारण राज्य के युवा में मतदाताआंs में 29 साल से कम उम्र के 1.17 करोड़ तो 39 साल से कम उम्र के 3.66 करोड़ मतदाता हैं। बिहार में डेढ़ दशक के बाद सभी विधानसभा और लोकसभा चुनाव में सुशासन बनाम जंगलराज मुख्य मुद्दा रहा। इस बार राजग रोजगार और विकास की बात करते हुए जंगलराज बनाम सुशासन की याद दिला रहा है। नई पीढ़ी के पास कथित जंगलराज की यादें नहीं है। यह पीढ़ी विकसित राज्यों के साथ बिहार की तुलना करती है। सहज सवाल है कि जब सियासी दलों का काम जाति की जुगलबंदी से ही चल जाता है तो विकास और रोजगार जैसे मुद्दे की जगह क्यों? दलों ने अपने-अपने हिसाब से जातिगत समीकरण की गोटी बिछाई है। राजग की निगाहें अति पिछड़ा, अगड़ा और महादलित पर तो विपक्ष महागठबंधन का यादव-मुस्लिम, दलित और कम संख्या वाली छोटी-छोटी बिरादरी पर है। राज्य में अलग-अलग जातियां, अलग-अलग दलों के साथ खड़ी जरूर दिखती हैं, मगर इस बार इनके पास रोजगार से संबंधित सवाल भी हैं। राज्य में साढ़े चार लाख सरकारी पद खाली हैं। पूर्व न्यायाधीश मार्पेण्डेय काटजू ने कहा है कि इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि बिहार में कौन-सी पार्टी जीत हासिल करेगी, राजग-कांग्रेस गठबंधन या जदयू-भाजपा गठबंधन। सच्चाई यह है कि बड़े पैमाने पर बेरोजगारी, बढ़ते कुपोषण के कारण बिहारवासी गरीब ही बने रहेंगे। स्वास्थ्य सुविधाओं का घोर अभाव और जनता के लिए अच्छी शिक्षा यहां नदारद है। -अनिल नरेन्द्र

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