Saturday 14 November 2020

बिहार का मैनडेट किसको मिला है?

बिहार का चुनाव इस बार किसी गुत्थी की तरह रहा। दोपहर से ही एनडीए लगातार आगे रहा पर महागठबंधन भी बस दो कदम ही पीछे-पीछे दिखाई देता रहा। आखिरकार रात 12 बजे लगभग साफ हो गया कि नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले एनडीए सरकार बनाने लायक आंकड़ा जुटा चुका है। इसी से यह भी साफ हो गया कि कोरोना काल में पलायन का सबसे ज्यादा दर्द झेलने वाले बिहार के लोगों ने एनडीए पर ही भरोसा जताया है। हालांकि नीतीश कुमार की पार्टी पिछड़कर तीसरे स्थान पर पहुंच गई। यानि यह भी साफ हो गया कि बेशक वह सीएम बनेंगे, लेकिन सरकार में भाजपा अब बिग ब्रदर की भूमिका में रहेगी। बदले हुए हालात में भाजपा के स्थानीय नेताओं ने यह भी मांग उठा दी कि अब सीएम भी भाजपा का ही होना चाहिए। हालांकि भाजपा के राष्ट्रीय नेताओं ने कहा कि बिहार में नीतीश ही एनडीए के नेता रहेंगे। नीतीश कुमार की जदयू की सीटें घटने का सबसे बड़ा फैक्टर चिराग पासवान रहे। उन्होंने 30 सीटों पर जदयू को नुकसान पहुंचाया। बिहार विधानसभा चुनाव में हालांकि लोक जनशक्ति पार्टी का चिराग रोशन होने से पहले ही बुझ गया। एनडीए से बगावत कर लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) अध्यक्ष चिराग पासवान ने भले ही जनता दल (यू) को थोड़ा बहुत नुकसान पहुंचाया है लेकिन वास्तविकता यह है कि अकेले चुनाव लड़कर वह न घर के रहे न घाट के। यह परिणाम लोजपा के लिए बड़ा झटका तो साबित हुए ही साथ ही वह चिराग को बड़ी राजनीतिक सीख भी दे गए। मतगणना में कुछ सीटों पर चौंकाने वाले परिणाम भी आए। चुनाव में महागठबंधन के बैनर तले लड़ रहे वामदलों ने एक बार फिर से राज्य की राजनीति में न केवल अपनी जड़ों को जमाया है बल्कि इस बार 16 सीटें जीतकर अपनी जबरदस्त वापसी की है। पश्चिम बंगाल, केरल व तमिलनाडु में अगले साल होने वाले चुनाव में बिहार में वामदलों का प्रदर्शन उनके लिए संजीवनी का काम करेगा। वहीं कांग्रेस का प्रदर्शन अपेक्षा के अनुरूप नहीं रहा। उसे सिर्फ 19 सीटें ही प्राप्त हुईं। इसी तरह असदुद्दीन ओवैसी की एआईएमआईएम ने पांच सीटों पर कब्जा कर सभी को हैरान कर दिया, बिहार चुनाव में अगर इस बार किसी ने गेमचेंजर की भूमिका निभाई, वोट कटवा की नीति बनाई तो वह है ओवैसी की पार्टी। वह सिर्फ पांच सीट जीतने में सफल रहे लेकिन एक दर्जन सीटों पर गठबंधन का खेल बिगाड़ा। सीमांचल में इस बार मुस्लिमों की स्वाभाविक पसंद बनकर वह उभरे। पहली बार गठबंधन का माई फैक्टर बिखर गया। इस बार भी राज्य में नोटा फैक्टर ने अपनी भूमिका निभाई। पूरे राज्य में छह लाख से अधिक नोटा पर वोट पड़े। इससे लगभग दो दर्जन सीटों पर प्रभाव पड़ने का दावा किया जा रहा है। तेजस्वी यादव ने यह चुनाव बहुत मजबूती से लड़ा। वह अपने पिता लालू प्रसाद यादव की परछाईं से बहुत हद तक उभरने में कामयाब रहे। उन्होंने अपने आपको राजद का नेता स्थापित करने में बहुत हद तक कामयाबी हासिल की। लेकिन अब देखना यह होगा कि सरकार बनाने के बाद एनडीए अपने वादों जिसमें रोजगार से जुड़ा वादा है उसको कैसे पूरा करती है? नीतीश बाबू के सुशासन बाबू इस बार पूरी तरह से नकार दिए गए हैं। अगर उन्हें सीएम बनाया जाता है तो वह बिहार के मैनडेट के खिलाफ होगा।

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