Published on 2 September, 2012
सुप्रीम कोर्ट द्वारा मुंबई हमले के दोषी पाकिस्तानी आतंकी अजमल आमिर कसाब की मौत की सजा को बरकरार रखने का समस्त देशवासियों ने स्वागत किया है। बुधवार को जस्टिस आफताब आलम एवं जस्टिस सीके प्रसाद की पीठ ने कसाब को भारत के खिलाफ युद्ध छेड़ने का दोषी ठहराते हुए कहा कि उसे मौत के अलावा कोई दूसरी सजा नहीं दी जा सकती। कसाब माफी के काबिल नहीं है, क्योंकि वह भारत और भारतीयों के खिलाफ हमले में शामिल था जिसका मकसद देश में अस्थिरता पैदा कर सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ना था। मुंबई में 26 नवम्बर 2008 को हुए आतंकी हमले में 166 लोग मारे गए थे और 238 घायल हुए थे। जिन्होंने भी इस दहशतगर्दी को टीवी पर देखा था और जिन्हें न्यायिक प्रक्रियाओं का थोड़ा भी इल्म था, वे तभी से मुतमईन थे कि नौ आतंकियों में अकेला जिन्दा पकड़ा गया अजमल कसाब सजा-ए-मौत से नहीं बच पाएगा, फिर भी सारी दुनिया ने देखा कि भारतीय न्यायिक प्रणाली में कसाब के मामले को तार्पिक परिणति तक पहुंचाने में हमारे न्यायालयों ने किसी तरह का शार्टकट या पक्षपात का सहारा नहीं लिया। कसाब के इस तरह के आरोप को खारिज करती हुई सुप्रीम कोर्ट की झिड़ी बिल्कुल वाजिब है। इससे दुनिया में भारतीय न्याय व्यवस्था की साख और धाक जमी है। पाकिस्तान पर भारत के खिलाफ साजिश की अदालती मुहर फिर लगी है। इस फैसले ने देशवासियों को जहां संतुष्टि अवश्य दी है, वहीं जनता के मन में यह संशय भी बरकरार है कि क्या इस सजा पर अमल करने की इस मनमोहन सरकार के पास इच्छाशक्ति है? इस सवाल का जवाब सिर्प संप्रग सरकार के पास है और देश की यह बदकिस्मती है कि आतंकियों को सजा देने के मामले में इस सरकार का रिकार्ड बहुत ही खराब व शर्मनाक है। इतने साल बीतने के बाद भी वह न तो संसद के हमले के दोषी अफजल को फांसी की सजा पर अमल कर सकी और न ही कुछ अन्य आतंकियों की ऐसी ही सजा पर। इस फैसले पर अमल करना अब सरकार की जिम्मेवारी है। उसे यह वाकई सुनिश्चित करना चाहिए कि इस या इस तरह के और मामलों में भी अमल पर जरा भी देरी न हो। देरी एक तरह से न्याय के सिद्धांतों का ही उल्लंघन होता है। फांसी की सजा का अगर मुल्क में विधान है, अदालत मामलों की गम्भीरता के आधार पर उसे देना जारी रखती है तो फिर सरकार के एक्शन को मियादी बनाया ही जाना चाहिए। इसे बिल्कुल पारदर्शिता के साथ तय किया जाना चाहिए कि सजा पर पुनर्विचार, राष्ट्रपति की माफी के हक के अलावा केवल मामले में अविचारित रह गए पहलुओं के हिसाब से होना चाहिए। किसी राजनीतिक आग्रह या बाध्यताओं के चलते नहीं। इन आतंकियों की न तो कोई जाति है और न ही कोई धर्म। सरकार अगर समझती है कि इन्हें फांसी देने से किसी वर्ग विशेष में प्रतिक्रिया होगी तो गलत सोचती है। कसाब ने निर्दोषों को निशाना बनाते समय यह नहीं देखा था कि सामने खड़े व्यक्ति का धर्म क्या है, जाति क्या है? अफजल के मामले में भारत सरकार की आनाकानी से यदि देश-दुनिया में कोई संदेश जा रहा है तो यही कि भारतीय स्टेट एक आतंकी को सजा देने का साहस नहीं जुटा पा रहा है। देरी से जहां प्रभावित परिवारों में सरकार के खिलाफ रोष बढ़ता है वहीं सुरक्षा बलों का भी मनोबल टूटता है। कसाब का तो केस शीशे की तरह साफ है। दर्जनों लोगों ने उसे गोलियां बरसाते देखा, उसके खिलाफ हर सम्भव साक्ष्य भी उपलब्ध हैं। इसके बावजूद हम सारी दुनिया को यह दिखाने में लगे हैं कि हमारी न्याय प्रक्रिया कितनी साफ है। यह ड्रामा किसलिए? दुनिया के बहुत से देश आतंकवाद से प्रभावित हैं। अमेरिका में फौरन सजा दे दी जाती है। यहां तक कि पाकिस्तान में भी आतंकवाद संबंधी केसों का फैसला एक साल में पूरा करने का प्रावधान है। भारत सरकार को जरूरत पड़े तो कानून में, संविधान में थोड़ा परिवर्तन जरूर करना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट का फैसला आने के बाद एक निश्चित अवधि (छह महीने) में राष्ट्रपति को अपना फैसला देना होगा। आज की तारीख में दर्जनों फांसी के मामले राष्ट्रपति भवन में लटके पड़े हैं। अगर इन पर सिलसिलेवार अमल होता भी है तो भी अफजल गुरू और कसाब का नम्बर बहुत दिनों बाद आएगा? पर इस प्रक्रिया को आरम्भ तो करो।
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