Sunday 30 September 2012

खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश से हमारा छोटा किसान तबाह हो जाएगा


 Published on 30 September, 2012
 अनिल नरेन्द्र
मनमोहन सिंह सरकार ने खुदरा व्यापार में 51 प्रतिशत प्रत्यक्ष विदेशी व्यापार के लाभों के पीछे एक बड़ा कारण यह बताया कि इससे हमारे किसानों को लाभ होगा। मैंने श्री इंडिया एफडीआई वाम के निदेशक श्री धर्मेन्द्र कुमार का इस विषय पर एक लेख पड़ा। उन्होंने बताया कि दुनिया के कुछ देशों में जहां यह एफडीआई लागू की जा चुकी है उनके किसानों का क्या अनुभव रहा है। दावा किया जा रहा है कि इससे उपभोक्ताओं को ही नहीं, किसानों को भी फायदा होगा जबकि ऐसे कई अध्ययन मौजूद हैं जिससे यह साबित होता है कि खेती के निगमीकरण से किसानों को नुकसान ही हुआ है। अध्ययन बताते हैं कि निगमीकृत आपूर्ति श्रृंखला का हिस्सा बनकर किसानों को उचित मूल्य हासिल करने के लिए जूझना ही पड़ता है, उन्हें जीवन-यापन की परेशानी भी झेलनी पड़ती है। मैक्सिको  में वाइल्स, ब्रेहम, इन्नोको, कैंडिल जैसे अध्ययनकर्ताओं ने पाया कि खाद्य आपूर्ति श्रृंखला के बदलाव से छोटे किसानों को आमतौर पर कोई फायदा नहीं हुआ। अपने देश में भी रिटेल सेक्टर में पहले से मौजूद औद्योगिक घराने सिर्प बड़े किसानों से ही माल खरीदते हैं। छोटे किसान इनकी खरीद व्यवस्था से बाहर ही हैं। हमारे देश में 78 प्रतिशत किसान छोटी जोत के हैं, जिनके पास दो हेक्टेयर से भी कम जमीन है। देश की कुल खेतिहर जमीन का 33 फीसद हिस्सा ही इन छोटे किसानों के पास है जबकि देश का 90 फीसद से ज्यादा खाद्य उत्पादन यही लोग करते हैं। कृषि का निगमीकरण छोटे किसानों के लिए हानिकारक हो सकता है। एक कटु सत्य यह भी है कि भारत के सकल घरेलू उत्पाद में कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों की हिस्सेदारी में लगातार गिरावट आ रही है। पिछले पांच वर्षों में यह आंकड़ा घटकर 14 फीसदी रह गया है। भारत को कौन खिलाता है? इसका जवाब भारत के छोटे किसानों के पास ही हो सकता है पर लगता है कि इन किसानों की किस्मत का फैसला सरकार ने वॉलमार्ट जैसी कम्पनियों के सुपुर्द कर दिया है। रिटेल में एफडीआई से खेतिहर मजदूरों के हालात में भी सुधार की गुंजाइश नहीं है। एक अध्ययन के मुताबिक वॉलमार्ट की वजह से मैक्सिको में खेतिहर मजदूरों की संख्या में गिरावट हुई है। जिन इलाकों में कारपोरेट रिटेल संचालित होते हैं, वहां रोजगार और मजदूरी पर दुप्रभाव से गरीबी बढ़ी है। अमेरिका में जहां-जहां वॉलमार्ट है, वहां गरीबी बढ़ी है। एक सच्चाई यह भी है कि सुपर मार्केट आपसी प्रतिस्पर्धा से बचते हैं। इसका खामियाजा किसानों को ही भुगतना पड़ता है, क्योंकि सुपर मार्केट उन्हें कम कीमत पर माल बेचने के लिए विवश करता है। घाना के कोकोआ उत्पादक किसानों को रिटेल मूल्य का चार फीसदी से भी कम मूल्य मिलता है। वहां रिटेल मार्जिन 34 फीसदी से ऊपर है। बेशक हमारे देश में किसानों को मिलने वाले मूल्य एवं रिटेल मूल्य के अन्तर को कम किया जाना चाहिए लेकिन इसका उपाय खुदरा में विदेशी निवेश नहीं है। दूध में अमूल जैसा सफल सहकारी प्रयोग हो सकता है, तो खाद्य उत्पादों में क्यों नहीं? कारपोरेट रिटेल के बजाय मार्केटिंग को-ऑपरेटिव को भी दुरुस्त किया जा सकता है। सरकार का एक तर्प यह है कि खाद्य आपूर्ति श्रृंखला के निगमीकरण से बिचौलिए समाप्त हो जाएंगे जबकि सच्चाई यह है कि लाखों छोटे बिचौलियों की जगह  बड़ी-बड़ी कम्पनियां ले लेंगी। खाद्य प्रसंस्करण, खाद्य सुरक्षा, खाद्य मानक, पैकेजिंग, लेबलिंग, वितरण करने वाली बड़ी कम्पनियां बतौर सलाहकार नए बिचौलिए बनकर उभरेंगी, जिसके पास मोल-भाव की जबरदस्त ताकत होगी। भारत तमाम तरह के मुक्त व्यापार समझौते कर रहा है, जिससे प्रसंस्कृत और अप्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों के आयात पर लगने वाले शुल्क खत्म हो जाएंगे। अमेरिका और यूरोप की रियायती खाद्य सामग्री हमारे बाजारों में भी आएगी। इससे किसानों से उनका बाजार छिन जाएगा। जाहिर है, खुदरा क्षेत्र में एफडीआई जैसे फैसले को छोटे किसानों के पक्ष में मोड़ने के लिए तमाम तरह के नियम-कायदों की जरूरत होगी, क्योंकि बेलगाम कम्पनियां खेती और खुदरा बाजार में तबाही मचा सकती हैं।

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