Wednesday, 5 September 2012

संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा, विश्वसनीयता बरकरार रखना जरूरी है


 Published on 5 September, 2012

अनिल नरेन्द्र
यह बहुत दुख की बात है कि संप्रग सरकार संवैधानिक संस्थाओं पर हमले कर रही है और इन संस्थाओं की विश्वनीयता पर चोट करने का प्रयास कर रही है। कोयला खदान आवंटन पर नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) की रिपोर्ट को लेकर सत्तापक्ष का असहज और साथ ही इस संवैधानिक संस्था के निष्कर्षों से असहमत होना तो तब भी समझ आता है लेकिन उसे कठघरे में खड़ा करना और यहां तक कि उस पर कीचड़ उछालना अभूतपूर्व है। यह पूरे देश के लिए चिन्ता का विषय है कि कैग पर पहले खुद प्रधानमंत्री ने निशाना साधा और उसके बाद तो कांग्रेस की टोली कैग पर टूट पड़ी। कांग्रेस महासचिव और बड़बोले नेता दिग्विजय सिंह ने तो एक नया तुर्रा छोड़ दिया है। दिग्विजय ने अब नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) विनोद रॉय के खिलाफ एक नया मोर्चा खोलने का प्रयास किया है। दिग्विजय ने रॉय पर सीधा हमला करते हुए कहा है कि वह राजनीतिक महत्वाकांक्षा पाल रहे हैं। उन्होंने रॉय की तुलना सरकारी नौकरशाह टीएन चतुर्वेदी से की है, जो कि बाद में भाजपा में शामिल हो गए थे। कांग्रेस महासचिव ने कहा कि उनकी महत्वाकांक्षा चतुर्वेदी की तरह है। वह रिटायर होने के बाद भाजपा में शामिल हो गए थे। सिंह ने कहा कि कैग प्रमुख विनोद रॉय की रिपोर्ट में कोयला ब्लॉक आवंटन में सरकार को दिखाए गए नुकसान की बात कपोल कल्पित है। इन आंकड़ों में बहुत विरोधाभास है और राजनीतिक मकसद को हासिल करने के लिए इसे बढ़ाचढ़ा कर दिखाया गया है। दिग्विजय सिंह की ओर से एक संवैधानिक संस्था पर किया जाने वाला यह करारा प्रहार है। इससे यदि कुछ साफ हो रहा है तो यही कि सत्तापक्ष को संवैधानिक संस्थाओं की गरिमा की कोई परवाह नहीं है। कांग्रेस और उसके नेतृत्व वाली सरकार के प्रतिनिधियों की ओर से कैग पर किए जा रहे हमले इसलिए आघातकारी हैं, क्योंकि इससे लोकतंत्र को कमजोर करने वाली एक नई परिपाटी की स्थापना होती दिख रही है। कांग्रेस की यह आदत-सी बन गई है कि जो रिपोर्ट उसे पसंद न आए वह उस रिपोर्ट को तैयार करने वाली संस्था पर हमला बोल देती है। कांग्रेस का रिकॉर्ड है कि जब-जब वो सत्ता में आई है उसने संवैधानिक एवं लोकतांत्रिक संस्थाओं को पहले अपने राजनीतिक हितों के लिए इस्तेमाल करना चाहा और जब ऐसा न हो सका तो उन पर सीधे हमले कर उसकी विश्वसनीयता घटाने का प्रयास किया। यह किसी से छिपा नहीं कि 2जी स्पेक्ट्रम आवंटन मामले में कैग रिपोर्ट पर चर्चा करने वाली लोक लेखा समिति में किस तरह सत्तापक्ष के लोगों ने तख्तापलट कर दिया था। यह भी किसी से छिपा नहीं कि 2जी मामले की जांच कर रही संयुक्त संसदीय समिति अपने लक्ष्यों से सोची-समझी रणनीति से भटकती नजर आ रही है। किसी संवैधानिक संस्था के निष्कर्षों से असहमति तो समझ आती है पर उस पर यूं कीचड़ उछालना न तो देशहित में है और न ही हमारे लोकतंत्र के लिए अच्छी परम्परा है। कोयला खदान आवंटन के मामले में कैग के निष्कर्ष अंतिम सत्य नहीं कहे जा सकते और उसकी रिपोर्ट से अन्य लोग भी असहमत हैं लेकिन सत्तापक्ष की असहमति का तरीका बेहद आपत्तिजनक है। कांग्रेस खुद भी बेदाग नहीं है। चुनाव आयुक्त एमएस गिल को किसने राज्यसभा की टिकट दी और मंत्री बनाया? जस्टिस रंगनाथ मिश्र दूसरा उदाहरण हैं। इस समस्या को तभी खत्म किया जा सकता है जो संवैधानिक पदों पर बैठे लोग रिटायर होने के बाद एक तय समय तक न तो कोई राजनीतिक पार्टी में शामिल हों और न ही किसी लाभकारी सरकारी पद को स्वीकार करें। ऐसा कानून बना दो समस्या खत्म हो जाएगी पर इस तरह के हमले ठीक नहीं हैं।


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