Sunday 2 September 2012

अमेरिकी विरोध के बावजूद तेहरान में गुटनिरपेक्ष सम्मेलन


 Published on 2 September, 2012

अनिल नरेन्द्र

गुटनिरपेक्ष आंदोलन के 16वें शिखर सम्मेलन का होस्ट देश ईरान को बहुत दिनों से इंतजार था। शायद ईरान को इसी वक्त का इंतजार था जब वह विश्व पटल पर अपना गुस्सा निकाल सके और अपनी दलीलों से गुटनिरपेक्ष देशों की विचारधारा बदल सके। बृहस्पतिवार को गुटनिरपेक्ष शिखर वार्ता के उद्घाटन के साथ ही ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्ला खोमैनी ने सीधा प्रहार उन पर किया जो ईरान के परमाणु कार्यक्रम को रोकने के लिए दबाव बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं। खोमैनी ने जहां एक तरफ संयुक्त राष्ट्र महासचिव की मौजूदगी में सुरक्षा परिषद की तानाशाही का खुला स्वरूप कहा वहीं दूसरी तरफ वे अमेरिका और पश्चिमी सहयोगी देशों पर आरोप लगाने से नहीं कतराए कि वे परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल पर सिर्प अपना अधिकार बनाए रखना चाहते हैं। खोमैनी ने कहा कि अमेरिका अपनी ताकत के दम पर ईरान जैसे देशों पर अनुचित दबाव बनाता आया है।  इराक और अफगानिस्तान में हत्याओं के लिए अमेरिका जिम्मेदार है यह आरोप ईरान के राष्ट्रपति महमूद अहमदीनेजाद ने लगाया। अहमदीनेजाद ने अमेरिका पर इन देशों में सुनियोजित ढंग से लोगों की हत्या करने का आरोप लगाया। गुटनिरपेक्ष देशों के शिखर सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए अहमदीनेजाद ने बृहस्पतिवार को कहा कि 120 देशों के इस संगठन को अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की शासन व्यवस्था में हिस्सा लेने के अपने लक्ष्यों और आकांक्षाओं के बारे में फिर से सोचना चाहिए। उन्होंने कहा, `संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के व्यवहार के कारण कब्जा करने का विस्तार, उत्प़ीड़न और अपराधों को बल मिला है।' दरअसल 50 के दशक में अमेरिका और सोवियत संघ के बीच चल रहे खतरनाक शीत युद्ध के जवाब में शुरू हुआ गुटनिरपेक्ष आंदोलन धीरे-धीरे शीत युद्ध समाप्त होते अपनी प्रासंगिकता खोता गया। लेकिन अमेरिका और पश्चिमी देशों की पहल पर अंतर्राष्ट्रीय `अछूत' घोषित हो चुके ईरान ने इस सम्मेलन के माध्यम से बताना चाहा कि आज भी वह अकेला नहीं है। करीब दो दर्जन देशों के शीर्ष नेतृत्व की मौजूदगी ईरान के मनोबल को बढ़ाने वाली थी। संयुक्त राष्ट्र महासचिव बान की मून ने समारोह में उपस्थित होकर ईरान को प्रसन्न कर दिया तो तीन दशकों के बाद मिस्र के किसी शीर्ष राजनेता का आगमन उसके लिए बोनस मिलने जैसा लग रहा था। ईरान का जो भी मकसद रहा हो, संयुक्त राष्ट्र महासचिव का अपना एजेंडा था। बान की मून ने छूटते ही ईरान की परमाणु तैयारियों पर हमला बोल दिया जिसमें अपरोक्ष धमकी भी छपी थी। बान ने ईरान को आगाह किया कि यदि उसने सुरक्षा परिषद के निर्देशों का पालन नहीं किया और परमाणु हथियारों की गुपचुप तैयारी का संदेह नहीं मिटाया तो युद्ध भड़कने की आशंका का इंतजार नहीं किया जा सकता। उधर मिस्र के नए राष्ट्रपति मोहम्मद मोरसी ने सीरिया में सत्ता के खिलाफ क्रांतिकारियों का गुणगान करके ईरान के जख्मों पर और नमक छिड़क दिया। यह सम्मेलन उल्टा ईरान पर भी भारी पड़ गया। मोरसी ने अरब मुल्कों में तानाशाही के खिलाफ सफल हो रही क्रांति की शान में कसीदे पढ़कर ईरान को बेचैन कर दिया, जो खुद तीन वर्षों से इस्लामी कट्टरपंथ के खिलाफ खड़े लोकतंत्र समर्थकों की आवाज दबाने की हर सम्भव कोशिश कर रहा है। सीरिया में तानाशाही के खिलाफ चल रहे संघर्ष में ईरान खुलकर वहां की सत्ता के साथ है जिसका पुरजोर विरोध अमेरिका व पश्चिमी देशों के अलावा तमाम अरब मुल्क कर रहे हैं। सोवियत संघ के विघटन के बाद ऐसे लोगों की कमी नहीं थी जो मानते थे कि अब इस आंदोलन की कोई जरूरत नहीं रही। इसलिए इसे समेटा जाना चाहिए। मगर आज भी करीब 120 देश इस आंदोलन के सदस्य हैं जिनमें से करीब 30 देशों के राष्ट्राध्यक्ष या शासनाध्यक्ष तेहरान सम्मेलन में भाग ले रहे हैं। बेशक आंदोलन आज कमजोर है और उसकी दशा और दिशा को लेकर संदेह पूरी तरह खत्म नहीं हुआ  हैं पर इसकी उपयोगिता आज भी है। इसमें एक तरफ ईरान और वेनेजुएला जैसे देश हैं जिनका अमेरिका के साथ टकराव है तो दूसरी तरफ भारत जैसे देश हैं जो अमेरिका के साथ मैत्री और सहयोग का रिश्ता मजबूत कर रहे हैं तो अपने पुराने और आजमाए मित्र रूस से भी दोस्ती बनाए हुए हैं। ईरान तो इसी बात से खुश है कि अमेरिका के विरोध के बावजूद तेहरान शिखर सम्मेलन हो रहा है।

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