Published on 7 September, 2012
अनिल नरेन्द्र
कोयला आवंटन घोटाला कांड में बुरी तरह घिरी संप्रग सरकार ने जनता का ध्यान हटाने के लिए अब एससी/एसटी की प्रोन्नति का आरक्षण कार्ड चलाया है। मंगलवार सुबह साढ़े 11 बजे मनमोहन सिंह सरकार की विशेष कैबिनेट बैठक एससी/एसटी को सरकारी नौकरियों में प्रमोशन में आरक्षण देने संबंधी विधेयक पर चर्चा के लिए बुलाई गई थी। महज 15 मिनट में कैबिनेट की बैठक विधेयक को मंजूरी देने के साथ ही समाप्त हो गई। सरकार के रणनीतिकार हंगामे की लगभग भेंट चढ़ चुके मौजूदा संसद सत्र में एससी/एसटी कार्ड को तुरुप के पत्ते की तरह इस्तेमाल करना चाहते हैं। बसपा के दबाव में सरकार विधेयक को राज्यसभा में पेश तो कर रही है लेकिन इसे पारित करवाने के लिए ज्यादा गम्भीर नहीं है। सरकार को पता है कि राज्यसभा में सत्ता पक्ष के पास पर्याप्त संख्या बल नहीं है। फिर भी वह उच्च सदन में विधेयक लेकर आ रही है। तर्प दिया गया है कि विधेयक सत्र समाप्त होने पर भी अस्तित्व में रहेगा। दरअसल सरकार गेंद विपक्ष के पाले में डालना चाहती है। राज्यसभा में बहुत हद तक दारोमदार प्रमुख विपक्षी दल भाजपा पर टिका है। भाजपा के दलित सांसदों ने इसका समर्थन तो किया है पर साथ-साथ यह भी कहा कि कांग्रेस की नीयत सही नहीं, इसलिए इस प्रस्ताव को संसद में मंजूरी मिल पाएगी इसकी उम्मीद कम ही है। कांग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकार का समर्थन कर रही समाजवादी पार्टी ही एससी/एसटी आरक्षण का विरोध कर रही है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने साफ कह दिया है कि सरकार का वही स्टैंड है जो पार्टी का है। विपक्ष के तैयार न होने पर सत्ता पक्ष उन्हें दलित विरोधी बताकर घेरने का प्रयास करेगा। विधेयक का समर्थन कर रहे तमाम दलित सांसद भी भाजपा के खिलाफ खड़े होंगे। हालांकि भाजपा रणनीति के तहत अभी इस मामले में अपने पत्ते नहीं खोल रही। उधर समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता रामगोपाल यादव ने कहा कि हम सरकार के फैसले की आलोचना करते हैं। यह असंवैधानिक है, इस बारे में संविधान संशोधन चार बार लाया जा चुका है और हर बार उसे सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर दिया। भाजपा के राष्ट्रीय सचिव अशोक प्रधान ने कहा कि भाजपा ने कभी दलितों के किसी अधिकार का विरोध नहीं किया। पार्टी ने हमेशा सामाजिक समरसता पर जोर दिया है। लेकिन सवाल कांग्रेस की नीयत का है। कोयला घोटाले में घिरी कांग्रेस ने संसद में आरक्षण संबंधी मुद्दे को ऐसे समय पर लाने का प्रयास किया है जब संसद में पहले से ही उसका विरोध चल रहा है। कांग्रेस नीत संप्रग सरकार यह जानते हुए कि सुप्रीम कोर्ट बिना संविधान संशोधन के इसे स्वीकार नहीं कर सकता फिर भी इसे लाई है तो सरकार की नीयत साफ है। इस सरकार के सामने उत्तर प्रदेश का उदाहरण भी है। 1994 में यूपी की तब की सरकार ने एससी/एसटी के लिए प्रमोशन में आरक्षण लागू किया। 2002 में बसपा-भाजपा सरकार ने और आगे बढ़ाकर दलित वर्ग के अधिकारों को तेज पदोन्नति के लिए परिणामी ज्येष्ठता प्रदान कर दी। 2005 में मुलायम सरकार ने परिणामी ज्येष्ठता का नियम रद्द कर दिया। 2007 में माया सरकार ने इस नियम को फिर लागू कर दिया। लेकिन हाई कोर्ट ने प्रमोशन पर रोक लगा दी। फिर माया सरकार सुप्रीम कोर्ट पहुंची। अनुच्छेद 16(4) और अनुच्छेद 335 में किसी परिवर्तन को सुप्रीम कोर्ट ने संविधान का बुनियादी ढांचा करार दिया। इसमें किसी भी तरह के संशोधन को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दिए जाने पर पेंच फंस सकता है। सुप्रीम कोर्ट ने 28 अप्रैल 2012 के फैसले में प्रोन्नति में आरक्षण के यूपी सरकार के कानून को असंवैधानिक बताया। कोर्ट ने कहा था कि संविधान में आरक्षण की व्यवस्था नौकरी में भर्ती के लिए है न कि बाद में होने वाली पदोन्नति के लिए। इसलिए जहां तक मनमोहन सरकार के कैबिनेट में प्रस्ताव पारित कर राज्यसभा में जबरन पेश करने का सवाल है तो यह महज कोयला घोटाले से ध्यान हटाने की राजनीतिक चाल है जिसका उद्देश्य एससी/एसटी का भला नहीं है बल्कि वोट बैंक की राजनीति को ध्यान में रखकर एक सियासी चाल है।
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