Tuesday, 18 September 2012

फिल्म तो बहाना है मूल समस्या तो अमेरिका है


 Published on 18 September, 2012

अनिल नरेन्द्र
अमेरिका की विदेश नीति खासकर मध्य पूर्व एशिया को लेकर आज प्रश्नचिन्ह लग गया है। आज लगभग पूरा मध्य पूर्व अमेरिका के खिलाफ खड़ा हो गया है। अमेरिका विरोध पूरे मध्य पूर्व, एशियाई देशों में फैलता जा रहा है। पैगम्बर मोहम्मद के अपमान में फिल्म  बनाने वाला एक अमेरिकी है। इस बेहूदा, कोरी बकवास फिल्म का नाम है `इंनोसेंस ऑफ द मुस्लिम्स।' ऐसी बेहूदा बकवास फिल्म बनाने का न तो कोई तुक था, न जरूरत ही थी। भारत को तो बिना सोचे इस बकवास फिल्म पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए। इस फिल्म को बनाने वाला इजरायली मूल का अमेरिकन सैम बेसाईल  भूमिगत हो गया है। समाचार वाशिंगटन पोस्ट की एक रिपोर्ट के अनुसार दो घंटे की फिल्म को बनाने के लिए सैम ने 100 यहूदियों से करीब 28 करोड़ रुपए चन्दा एकत्र किया। सैम ने कहानी लिखने के साथ ही इस फिल्म का निर्देशन भी किया है। इंनोसेंस ऑफ द मुस्लिम्स फिल्म का 14 मिनट का ट्रेलर यू-ट्यूब पर जारी किया गया था, जिसके बाद सारा मुस्लिम वर्ल्ड जल उठा। यह फिल्म मूल रूप से अंग्रेजी में बनाई गई है जिसे अरबी में भी डब किया गया है। जिन्होंने यह ट्रेलर देखा है उनका दावा है कि यह फिल्म बहुत बुरे ख्याल व नीयत से बनाई गई है जिसका मकसद केवल पैगम्बर मोहम्मद का अपमान करना है। बेशक यह फिल्म मध्य पूर्व एशिया में आग लगाने का सीधा बहाना बन गया पर मूल रूप से इन देशों में अमेरिकी विरोध बहुत दिनों से चल रहा है। बेनगाजी का घटनाक्रम एक सोची-समझी साजिश का हिस्सा मालूम होता है, जहां रॉकेट लांचरों और ऐसे ही भारी हथियारों से लैस लोगों ने अमेरिकी दूतावास पर हमला किया। उन्होंने अमेरिकी राजदूत को तब निशाना बनाया जब वह दूतावास की इमारत छोड़कर एक सुरक्षित स्थान पर गए थे या जा रहे थे। सम्भवत हथियारबंद आतंकवादियों को उस सुरक्षित स्थान का भी पता था। एक बात तो साफ है कि कर्नल मोहम्मद गद्दाफी को भले ही मार दिया गया हो पर कोई वैकल्पिक शासन प्रणाली लीबिया में नहीं है। जिन लोगों ने गद्दाफी के खिलाफ पश्चिमी सहायता लेकर लड़ाई लड़ी, वे कोई लोकतंत्र समर्थक संगठन नहीं थे बल्कि ऐसे कबीले थे जो परम्परागत रूप से गद्दाफी विरोधी थे। पश्चिमी एशिया और पूर्वी अफ्रीका में मौजूदा हुक्मरानों के खिलाफ आक्रोश जरूर है, लेकिन समस्या यह है कि लम्बे एकाधिकारवादी शासन की वजह से वहां न तो कोई लोकतंत्र संस्थान है, न ही इस किस्म की राजनीतिक शक्तियां हैं। अमेरिका ने गद्दाफी को हटाकर, सद्दाम को हटाकर व कुछ अन्य देशों में हुक्मरानों को हटाकर जो जल्दबाजी दिखाई उसी का एक परिणाम आज सामने आ रहा है। अमेरिका यह जमीनी यथार्थ भूल गया कि मौजूदा व्यवस्था के तहस-नहस होने से अराजकता फैलेगी। इन देशों में लोकतंत्र की किसी परम्परा को भी विकसित नहीं होने दिया। अमेरिका ने हमेशा शेखों से संबंध रखा, वहां की आवाम से नहीं। आवाम परम्परागत शेखों के खिलाफ भी है और अमेरिका के खिलाफ भी। अब भी अमेरिका की दिलचस्पी यहां लोकतंत्र में नहीं है बल्कि इसमें है कि नया सत्ता प्रतिष्ठान उसके अनुकूल रहे। शायद इस्लाम विरोधी फिल्म तो एक बहाना है और यह लीबिया में नए सशक्त संतुलन का एक धमाका था। आज से लगभग 25 साल पहले पाकिस्तान में अमेरिकी राजदूत अर्नोल्ड राफेल की हत्या हुई थी और तब अमेरिका ने इसमें अफगानिस्तान-पाकिस्तान में धार्मिक कट्टरवादी आतंकवाद के उभार की चेतावनी नहीं देखी थी। बेनगाजी में हुई हत्याएं सिर्प भीड़ के क्रोध की परिणति नहीं है, सम्भवत वे एक नए खतरे का अलार्म है।

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