Wednesday, 19 September 2012

मुलायम, ममता का ड्रामा, यह बादल गरजते हैं, बरसते नहीं


 Published on 19 September, 2012  
  अनिल नरेन्द्र
भ्रष्टाचार, महंगाई, एफडीआई रिटेल के मुद्दे और मनमोहन सरकार का नकारा सिद्ध होने पर भारतीय जनता पार्टी की नजरें मध्यावधि चुनाव पर टिकी हुई हैं। भाजपा उम्मीद पाले हुए है कि संप्रग के घटक दल देर-सवेर इस सरकार से समर्थन वापस ले लेंगे और यह सरकार गिर जाएगी पर हमें नहीं लगता कि ऐसा होगा। ममता बनर्जी, मुलायम सिंह यादव, मायावती और करुणानिधि सभी एक साथ झटके में समर्थन वापस ले लें तो ही सरकार को सही मायने में खतरा हो सकता है। लेकिन तब भी सरकार तुरन्त ही गिर जाने के आसार नहीं हैं। सरकार एक मिनट के लिए गिर भी जाए तो किसी और की सरकार बनने के आसार नहीं हैं। इन सबके मद्देनजर ही कांग्रेस और डॉ. मनमोहन सिंह ने सोची-समझी रणनीति के तहत जोखिम उठाया है। कटु सत्य तो यह है कि संप्रग का कोई घटक दल सरकार गिराने के पक्ष में नहीं है। फिर भी समर्थन वापसी का मन बना लिया जाता है तो सरकार का शक्ति-परीक्षण संसद में ही हो सकता है। संसद का विंटर सेशन अभी करीब तीन महीने दूर है। पहले सत्र अगर बुलाना है तो ममता, मुलायम, माया और करुणानिधि आदि नेताओं के दलों को मिलकर राष्ट्रपति से गुहार करनी पड़ेगी। क्या लेफ्ट पार्टियां और समाजवादी पार्टी सांप्रदायिक बीजेपी के साथ खड़े होंगे, क्या ममता लेफ्ट का साथ देंगी, क्या बसपा-सपा एक खेमे में होंगे, इतने सारे सवाल सरकार को गिराने से बचा सकते हैं। कटु सत्य तो यह है कि न तो ममता समर्थन वापस लेने वाली हैं और न ही सपा। हां, एनडीए जरूर यह उम्मीद पाले है कि सरकार गिर सकती है। सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव हमेशा कहते कुछ हैं, करते कुछ और हैं। याद है कि एटमी डील और राष्ट्रपति चुनाव का किस्सा। दोनों बार पहले धमकी दी और बाद में यूपीए के साथ खड़े नजर आए। लोकपाल पर भी सरकार को संकट से निकाल ले गए थे। दरअसल असल खेल तो 2014 की कुर्सी का है। मुलायम सरकार गिराने के बजाय 2014 का इंतजार करना चाहेंगे। इस बीच यूपी और थर्ड फ्रंट के बीच अपनी ताकत बढ़ाते रहेंगे। तब तक मनमोहन सरकार से पैसों की सौदेबाजी करके ज्यादा से ज्यादा पैसे लेते रहेंगे। यही उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के दौरान किया था। पहले धमकी देना फिर नरम हो जाना ममता बनर्जी की पुरानी आदत है। फिलहाल ऐसे कई कारण नजर आ रहे हैं जिनके चलते वह मनमोहन सरकार को गिराने में दिलचस्पी नहीं रखतीं। उनके अपने ही उनके साथ नहीं हैं। तृणमूल के 19 सांसद हैं। लेकिन कबीर सुमन और दिनेश त्रिवेदी हमेशा अलग दिशा में चले हैं। त्रिवेदी को इसी के चलते रेल मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ा था। फिर ममता को मुलायम पर अब भरोसा नहीं रहा। राष्ट्रपति चुनाव में मुलायम पहले तो ममता से कहते रहे कि प्रणब के नाम का विरोध करो, लेकिन बाद में खुद ही प्रणब के लिए राजी हो गए। ममता की एक मुसीबत यह भी है कि वह थर्ड फ्रंट में नहीं जा सकतीं। ममता किसी भी कीमत पर लेफ्ट के साथ खड़ी नहीं हो सकतीं और भाजपा नेतृत्व वाले एनडीए में जाकर ममता मुस्लिम वोट बैंक को खोना नहीं चाहतीं। ममता की पहली प्राथमिकता बंगाल है। अपनी बंगाल की सरकार चलाने के लिए पैसों की जरूरत दिल्ली से ही पूरी हो सकती है। ऐसे में यूपीए ही एकमात्र गठबंधन बचता है। इसी साल दिसम्बर में बंगाल में पंचायत चुनाव हैं। इनमें वह अकेले चुनाव लड़ने वाली हैं। जीत की सम्भावनाएं प्रबल हैं। वे लेफ्ट को मजबूत होने का मौका नहीं देना चाहती। अब बात करते हैं बहन जी की। मायावती की पहली प्राथमिकता उनका अपना वोट बैंक है। मायावती ने कहा है कि वह अपने रुख के बारे में अक्तूबर में तय करेंगी बस, यही चौंकाने वाली बात थी। क्योंकि माया खुद और फौरन फैसला करती हैं। किसी से पूछ कर नहीं। एटमी डील और लोकपाल पर सरकार को बचाना इसके उदाहरण हैं। वे पहले यह देखना चाहती हैं कि मुलायम क्या फैसला लेते हैं। एफडीआई कभी भी मायावती का मुद्दा नहीं रहा। एफडीआई से उनका आकलन है कि इससे नए रोजगार का बड़ा हिस्सा कमजोर वर्ग को ही मिलेगा। माया अपने मूल जनाधार के हितों के खिलाफ कोई भी कदम उठाने से रहीं। अब आगे होगा क्या? सौदेबाजी जोरों पर है। सरकार कुछ कंसेशन दे सकती है। छह एलपीजी गैस सिलेंडरों की जगह आठ सिलेंडर कर सकती है। डीजल में भी एक-दो रुपए घटा सकती है। मुलायम और ममता दोनों को नए पैकेज मिल सकते हैं। यह बादल यूं ही गरजते रहेंगे, बरसेंगे नहीं।

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