Published on 22 September, 2012
श्री प्रणब मुखर्जी को यूं ही नहीं कहा जाता था कि वह कांग्रेस पार्टी और यूपीए सरकार के संकट मोचन हैं। उन्हें राष्ट्रपति बने अभी दो महीने का भी समय नहीं हुआ यानी कांग्रेस का संकट मोचन हटे दो महीने नहीं हुए और यह सरकार डांवाडोल हो गई है। प्रणब दा की अनुपस्थिति में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने खुद पार्टी और सरकार की बागडोर सम्भाली। यह कितनी सफल नेता हैं दो महीने में पता चल गया। इस दौरान सरकार का और विपक्ष का सिर्प टकराव ही हुआ है। रही बात टाइमिंग की तो पता नहीं मनमोहन सिंह ने क्या सोच कर एक और डीजल और एलपीजी मूल्यों में वृद्धि की और अभी जनता इससे सम्भली ही नहीं थी कि एफडीआई की नई समस्या खड़ी कर दी। क्या एफडीआई और डीजल, एलपीजी मूल्यों के साथ-साथ लाना जरूरी था। नतीजा यह हुआ कि तमाम विपक्ष एकजुट हो गया। भारत बन्द ने यह तो साबित कर ही दिया कि लोकसभा के बहुमत सांसद सरकार के खिलाफ है। चाहे वह भाजपा हो, सपा हो या फिर वाम मोर्चा हो सभी आज सरकार के खिलाफ खड़े हैं। ममता लगता है अब मानने वाली नहीं। उनकी अपनी मजबूरियां हैं। प. बंगाल में उनका मुकाबला वाम मोर्चा से है। ममता एक मिनट के लिए डीजल कीमतों पर सौदेबाजी कर सकती थी पर एफडीआई पर वह किसी कीमत पर यह समझौता नहीं कर सकतीं। अगर वह करती हैं तो प. बंगाल में वाम मोर्चा इसका फायदा उठाकर ममता के खिलाफ चुनावी मुद्दा बना सकता है। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पर खुले आरोप लग रहे हैं कि वह आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक के सिद्धांत से प्रेरित होकर फैसले ले रहे हैं, उन्हें अमेरिका की ज्यादा चिन्ता है बनिस्पत भारत के। यूपीए सरकार में कांग्रेस सबसे बड़ा घटक दल है, इसलिए उसे सभी दलों को विश्वास में लेकर चलना चाहिए। ऐसा लगता है कि 2004 में गठबंधन सरकार चलाने के बावजूद कांग्रेस आठ साल बाद भी गठबंधन की राजनीति को लेकर सहज नहीं हो पाई है और जब-तब अहंकार उसके आड़े आ जाता है। वह यह भूल जाती है कि 1991 की नरसिंह राव की अगुवाई वाली अल्पमत सरकार बनाने के बाद से उसकी स्वीकार्यता उस स्तर को नहीं छू सकी है जिसके जरिये वह अपने दम पर सरकार बना लेती थी या चला सकती है। पिछली बार भी उसे 205 सीटें ही मिली थीं और वह घटक दलों के समर्थन से ही चल रही है पर इसके बावजूद कांग्रेस में आज अहंकार इतना हावी हो गया है कि वह जरूरी से जरूरी फैसलों पर भी महत्वपूर्ण घटक दलों से सलाह मशविरा नहीं करती और एकतरफा फैसला लेकर उम्मीद करती है कि घटक दल उसकी मदद करने पर मजबूर होंगे। आज अगर सीबीआई का हौवा नहीं होता तो दोनों मुलायम और मायावती कांग्रेस को उनकी सही औकात दिखा देते। वैसे भी सपा और बसपा विश्वसनीय सहयोगी नहीं कहे जा सकते और फिलहाल तो ये दोनों भी कठोर रवैया अपनाए हुए हैं और सरकार को अहंकारी और जन विरोधी बता रहे हैं। संप्रग के एक अन्य घटक दल द्रमुक ने जिस तरह भारत बन्द में शामिल होकर कांग्रेस को एक झटका दिया है, द्रमुक के इस फैसले से यह स्पष्ट है कि वर्तमान में कोई भी दल सरकार के साथ खड़ा दिखने को तैयार नहीं है। बेहतर हो कि कांग्रेस के नीति-नियंता इस बारे में विचार करें कि ऐसी स्थिति क्यों बनी? कांग्रेस यह कह कर आम जनता और सहयोगी दलों को प्रभावित नहीं कर सकती कि वह आर्थिक सुधारों के प्रति प्रतिबद्ध है और उनसे पीछे हटने वाली नहीं। कांग्रेस के नेतृत्व वाली केंद्रीय सत्ता ने हाल ही में जो फैसले लिए हैं उन्हें पूरी तौर पर आर्थिक सुधार की संज्ञा देना कठिन है। डीजल के दामों में वृद्धि और रिटेल कारोबार में विदेशी पूंजी को अनुमति देने के फैसले को वास्तविक आर्थिक सुधार मानना कठिन है। तेल कम्पनियां डीजल मूल्य के मामले में अभी भी सरकार की मोहताज हैं इसी तरह रिटेल कारोबार में विदेश पूंजी को अनुमति देने का फैसला तब तक आधा-अधूरा ही है जब तक उस पर राजनीतिक सहमति नहीं बन जाती। हमारी नजर में भारत बन्द सफल रहा। भाजपा ने इसकी सफलता के लिए बहुत मेहनत की। बन्द को सफल बनाने के लिए पार्टी ने अपने 50 नेताओं को अलग-अलग शहरों में भेजा। भारत बन्द में गिरफ्तारी देते समय सपा मुखिया मुलायम सिंह यादव ने कहा कि फिलहाल उनका समर्थन यूपीए के साथ है लेकिन यह कब तक रहेगा कह नहीं सकते। इसका मतलब है कि वो बसपा के फैसले का इंतजार करेंगे। मायावती आगामी 10 अक्तूबर को आगे का रास्ता तय करेगा। चूंकि मुलायम सिंह राजनीति में मंझे हुए खिलाड़ी हैं इसलिए वो नहीं चाहेंगे कि वह माया से पहले अपने पत्ते खोलें। इतना तय है कि मनमोहन सिंह सरकार के भविष्य पर प्रश्नचिन्ह जरूर लग गया है। कुछ लोगों का तो यहां तक मानना है कि यूपीए सरकार की उल्टी गिनती शुरू हो गई है।
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