Sunday, 30 September 2012

सुप्रीम कोर्ट के फैसले से सरकार को राहत पर दायित्व से मुक्ति नहीं


 Published on 30 September, 2012
 अनिल नरेन्द्र
 सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को बड़ी राहत दी है। निश्चित रूप से राष्ट्रपति की ओर से भेजे गए सन्दर्भ-पत्र पर सुप्रीम कोर्ट की राय से सरकार ने राहत की सांस ली होगी। कोर्ट ने कहा है कि सभी प्राकृतिक सम्पदाओं के बंटवारे के लिए नीलामी जरूरी नहीं है। कोर्ट का आदेश सिर्प 2जी स्पेक्ट्रम तक सीमित रहेगा। इसके साथ ही अदालत ने माना कि प्राकृतिक संसाधनों का बंटवारा नीतिगत मामला है और कोर्ट को इसमें दखल से तब तक बचना चाहिए जब तक इसमें लूट या घपले की आशंका नहीं हो। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में 2जी स्पेक्ट्रम  के 122 लाइसेंस रद्द करने के मामले पर प्रेसिडेंशियल रेफरेंस (पीआर) दाखिल की थी। अदालत के फैसले से एक दुविधा तो जरूर होगी कि प्राकृतिक संसाधनों को निजी हितों के हवाले करने का रूप क्या हो, जनहित में इसे तय करने का अधिकार सिर्प कार्यपालिका को है। आर्थिक उदारीकरण को गति देने वाले प्रस्तावित फैसलों के सन्दर्भ में भी इसका महत्व है। हालांकि राष्ट्रपति के रेफरेंस पर संविधान पीठ के व्यक्त विचार अदालती फैसलों में बाध्यकारी नहीं हैं लेकिन किसी मामले पर गौर करते वक्त वह इससे नजरिया तो ले ही सकती है। दरअसल सुप्रीम कोर्ट के ही एक फैसले के कारण पिछले कुछ महीनों से ऐसा माना जाने लगा था कि अदालत या सीएजी या कोई भी संवैधानिक संस्था सरकार के कामकाज को ही नहीं, उसकी नीतियों को भी कठघरे में खड़ा कर सकती है। बीती फरवरी में 2जी स्पेक्ट्रम मामले में सुनाए गए अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट की दो सदस्यीय बेंच ने `पहले आओ, पहले पाओ' के आधार पर जारी किए 122 टेलीकॉम लाइसेंस रद्द कर दिए थे। लेकिन ऐसा करते हुए उसने यह भी कहा था कि सरकार द्वारा किसी भी प्राकृतिक संसाधन को निजी हाथों में बेचने का एकमात्र कानूनी और संवैधानिक तरीका पारदर्शी तरीके से उसकी नीलामी का ही हो सकता है। इसके कुछ दिन बाद सीएजी ने कोयला खदानों के आवंटन को लेकर जारी अपनी रिपोर्ट में यह टिप्पणी की थी कि इनकी नीलामी न किए जाने से सरकारी खजाने को एक लाख 86 हजार करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। अब केंद्र के कई मंत्री उच्चतम न्यायालय के ताजा फैसले का हवाला देकर कैग को नसीहत देने में जुट गए हैं। मानो नीलामी का तरीका नहीं अपनाया गया तो बाकी जो कुछ हुआ वह सब ठीक था और उस पर अंगुली नहीं उठाई जा सकती जबकि सुप्रीम कोर्ट ने सिर्प संवैधानिक स्थिति स्पष्ट की है। अदालत ने साफ कहा है कि आवंटन हर हाल में पारदर्शी होना चाहिए। अगर आवंटन का तरीका मनमाना, स्वेच्छाचारी और गलत है तो अदालत उसकी समीक्षा कर सकती है। इसलिए सरकार को जवाबदेही से सर्वथा मुक्ति नहीं मिली है। उसे अपने फैसलों की युक्तिसंगतता साबित करने के लिए हमेशा तैयार रहना होगा। कभी भी उन्हें चुनौती दी जा सकती है और न्यायिक विवेचना के दायरे में लाया जा सकता है। साथ-साथ यह जरूर है कि पारदर्शिता न बरते जाने की हर शिकायत की अदालत में समीक्षा हो सके, यह व्यावहारिक नहीं जान पड़ता। उच्चतम न्यायालय के ताजा फैसले ने मनमानी के  लिए एक गली छोड़ दी है। बेहतर होता कि सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे आवंटनों के लिए एक व्यापक नीति बनाने और विधायिका से उसकी मंजूरी लेने की हिदायत दी होती।

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