Published on 25 September, 2012
अनिल नरेन्द्र
तृणमूल कांग्रेस के समर्थन वापसी के फैसले से लड़खड़ाई मनमोहन सिंह सरकार को उस समय बड़ा सहारा मिल गया जब समाजवादी पार्टी ने सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने की खातिर सरकार को समर्थन जारी रखने का संकल्प जाहिर किया। इस तरह मुलायम डबल गेम खेल रहे हैं। एक तरफ उनके हाथ में विरोध का झंडा है तो दूसरे हाथ में सरकार को बचाने का एजेंडा। यह दूसरी बारी है जब मुलायम ने इस सरकार को संजीवनी दी है। 2008 में भी जब अमेरिका से परमाणु करार के मुद्दे पर वाम दलों ने समर्थन वापस लिया था तो सपा ने मनमोहन सिंह सरकार की बाकी ढाई साल के लिए नैया पार लगा दी थी। मुलायम सिंह यादव दरअसल अपने दोनों हाथों में लड्डू रखना चाहते हैं। वह कांग्रेस के दुश्मन भी दिखना चाहते हैं और परदे के पीछे दोस्ती का दरवाजा भी खुला रखना चाहते हैं। वह केंद्र सरकार से फायदा भी लेना चाहते हैं और साथ में यह भी चाहते हैं कि सरकार जल्द से जल्द विदा भी हो जाए ताकि यूपी में उन्हें लाभ मिल सके। वह मुस्लिम वोटों की नाराजगी के भय से सरकार गिराने का अपयश भी नहीं लेना चाहते। मुलायम के मन में तीसरे मोर्चे का सपना और केंद्र में सरकार संचालन के सूत्रधार बनने की कल्पना तो है लेकिन वह यह भी नहीं चाहते कि सपा की किसी चाल से बसपा-कांग्रेस में दोस्ती गहरी हो जाए। दाव-पेंच में माहिर मुलायम सिंह यादव सियासत में दो नावों की सवारी की कहावत को चरितार्थ करते दिख रहे हैं। इस बार भी हर बार की तरह मनमोहन सरकार का समर्थन जारी रखने के पीछे सांप्रदायिक शक्तियों को आगे आने से रोक दिया गया है। मनमोहन सरकार को आंखें दिखा रहे मुलायम सिंह यादव 72 घंटे से भी कम वक्त में `लाइन' पर आ गए। ठीक 24 घंटे पहले सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करते हुए गिरफ्तारी देने वाले मुलायम को एक बार फिर सांप्रदायिक ताकतों की याद आ गई। अब वे कांग्रेस को समर्थन देना जारी रखेंगे, क्योंकि सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता में आने से रोकना है। पिछले तीन दिनों में मुलायम सिंह ने कई रंग बदले हैं। गिरगिट की तरह रंग बदलने में माहिर मुलायम सिंह ने 19 सितम्बर को कहा कि एफडीआई को मंजूरी और डीजल के दामों में बढ़ोतरी का फैसला केंद्र सरकार को वापस लेना होगा। हम इसका विरोध करते हैं। यह जन विरोधी है। उन्होंने यह भी कहा था कि सरकार से समर्थन वापस लेने का फैसला वह पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक में राय-मशविरा करके लेंगे। यह बैठक 20 सितम्बर को होनी थी। 20 सितम्बर को मुलायम केंद्र सरकार के खिलाफ जन्तर-मन्तर पर थे। उन्होंने चन्द्रबाबू नायडू, प्रकाश करात, सीताराम येचुरी व एबी वर्धन की मौजूदगी में सरकार की खिलाफत की। मुलायम के साथ सात छोटे दलों के नेताओं की मौजूदगी ने तीसरे मोर्चे की अटकलों को बल दे दिया। खुद मुलायम यह बोले कि प्रधानमंत्री तीसरे मोर्चे का होगा। पूरे दिन चर्चा का केंद्र रहे मुलायम ने समर्थन वापसी पर कोई बात नहीं की। न ही उनकी पार्टी के संसदीय बोर्ड की बैठक हुई। उनके छोटे भाई व प्रवक्ता रामगोपाल यादव ने तो यहां तक कह दिया कि ऐसी कोई बैठक होनी ही नहीं थी। शुक्रवार को मुलायम के स्वर पूरी तरह बदले हुए थे। तृणमूल कांग्रेस के मंत्री जब प्रधानमंत्री को अपने इस्तीफे सौंपने जा रहे थे तब मुलायम मीडिया को देश पर छा रहे सांप्रदायिक खतरे के बारे में बता रहे थे। सांप्रदायिक शक्तियों से उनका मतलब भाजपा से है। सपा भाजपा को चाहे जिस तरह परिभाषित करे, इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि वर्तमान में वह कई राज्यों में सत्तारूढ़ है। इसका अर्थ है कि देश की जनता के एक बड़े वर्ग को सपा की इस दलील में कोई दम नजर नहीं आता कि सांप्रदायिक शक्तियों को दूर रखने के लिए वह संप्रग सरकार को समर्थन देने के लिए विवश हैं। सपा जिसे अपनी मजबूरी बता रही है वह उसकी एक बड़ी कमजोरी के रूप में रेखांकित हो रही है। देश की जनता को यही संदेश जा रहा है कि सपा किन्हीं अन्य राजनीतिक कारणों से संप्रग सरकार को बेल आउट कर रही है। कुछ ऐसी ही स्थिति बसपा की भी है। ये दोनों दल जिस तरह दो नावों की सवारी कर रहे हैं उससे उन्हें ही घाटा उठाना पड़ेगा। मुलायम भले ही कांग्रेस को समर्थन की वजह सांप्रदायिक शक्तियों को मजबूत न होने देने की बता रहे हों लेकिन यही अकेली वजह नहीं है। इसके पीछे मुलायम का अपना गणित है। वह केंद्र सरकार पर दबाव बनाकर उसे अपनी अंगुली पर नचाना चाहते हैं और साथ ही उत्तर प्रदेश के लिए केंद्र से ज्यादा से ज्यादा आर्थिक लाभ उठाना चाहते हैं और इस दौरान अपने आपको ज्यादा मजबूत करना चाहते हैं।
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