Friday, 18 June 2021

गूगल को मात देते हरिद्वार के पंडों के बही-खाते

उत्तराखंड की पुंभ नगरी हरिद्वार के विश्वविख्यात हर की पौड़ी के पास कुशाघाट के आसपास पुराने घरों में पंडों की अलमारियों में करीने से रखे गए सैकड़ों साल पुराने बही-खातों में दर्ज वंशावंली सूचना क्रांति के आधुनिक टूल गूगल को भी मात देते हैं। हरिद्वार में रहने वाले लगभग दो हजार पंडों के पास कई पीढ़ियों से अपने यजमानों के वंशवृक्ष मौजूद हैं। अपने मृतक परिजनों के क्रियाकर्म किए जाने वाले लोग यहां आते हैं और अपने पुरोहितों की बही में अपने पूर्वजों के साथ अपना नाम भी दर्ज करवा लेते हैं। यह परंपरा तब से चली आ रही है जब से कागज अस्तित्व में आया। उससे पहले भोज पत्र पर भी वंशवृक्ष के लिपिबद्ध होने का जिक्र है। वह अब लुप्तप्राय से हो गए हैं। यहां के प्रतिष्ठित पुरोहित पंडित कौशल सिखौला के अनुसार यहां के पंडे हरिद्वार के ही मूल निवासी हैं। यह बताते हैं कि कागज से पहले उनके पूर्वज पंडे अपने लाखों यजमानों के नाम वंश व क्षेत्र तक जुबानी याद रखते थे। जिन्हें वह अपने बाद अपनी आगामी पीढ़ी को बता देते थे। यहां के पंडों में यजमान, गांव, जिला तथा राज्यों के आधार पर बनते हैं। किसी भी पंडे के पास जाने पर वह यथासंभव जानकारी दे देते हैं कि उनके वंशज के कौन-कौन हैं। कई बार किसी व्यक्ति की मौत पर उसकी सम्पत्ति संबंधी परिवारों के आपसी विवादों में वंशावलियों का निर्णय उन्हीं बहियों की मदद से होता है। इन बहियों को देखने बाकायदा अदालत के लोग यहां आते हैं, जिसके अनुसार अदालतें अपना निर्णय करती हैं। इन बही-खातों में पुराने राजा-महाराजा से लेकर आम आदमी की वंशावली भी दर्ज है। पंडित कौशल सिखौला कहते हैं कि कम्प्यूटर युग में भी इन प्राचीन बही-खातों की उपयोगिता कम नहीं हुई है। क्योंकि इन बही-खातों में उनके पूर्वजों की हस्तलिखित बातें और हस्ताक्षर दर्ज होते हैं, जिनकी महत्ता किसी भी व्यक्ति के लिए कम्प्यूटर के निर्जीव प्रिंटआउट से निश्चिंत ही अधिक होती है। उनका कहना है कि जहां उनकी आने वाली पीढ़ियां पढ़-लिखकर अन्य व्यवसाय में जा रही हैं वहीं कुछ पढ़े-लिखे युवा व सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी कर्मचारी अपनी परंपरागत गद्दी संभाल रहे हैं। -अनिल नरेन्द्र

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