Wednesday, 23 June 2021
कोरोना की वजह से दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी
जो अपने चले गए उनका स्थायी गम और खुद के मरने के खौफ के बीच लगता है कि कोरोना की दूसरी लहर भी निकल गई। केस कम हो रहे हैं। शेयर बाजार में निवेश बढ़ता जा रहा है। लॉकडाउन खुलने से लोग फिर जिंदगी की जद्दोजहद में शरीक होने लगे, मानों रातभर के बुरे सपने से जागे हों। यह भी सच है कि देश में महामारी से अब तक हुई मौतों का 60 प्रतिशत पिछले छह हफ्तों में दर्ज हुआ और वह भी जब भारत में मौतों का असली आंकड़ा सरकारी आंकड़ों से कई गुना ज्यादा माना जाता है। उधर मरीजों की संख्या में कमी से पैदा हुई तसल्ली छीनती हुई ताजा खबरें हैं कि ब्रिटेन, ब्राजील और जापान अगली लहर की चपेट में हैं। भारत में तीसरी लहर का अंदेशा हर वैज्ञानिक अनुमान में बता रहा है। कहा जा रहा है कि डेल्टा स्ट्रेन जो सबसे पहले भारत में पाया गया था, जिसके मामले भारत में बड़ी तादाद में पाए गए, ज्यादा संक्रामक हैं और वैक्सीन इसमें पूरी तरह कारगर नहीं है। दुनिया के इतिहास में शायद ही कभी ऐसी स्थिति आई हो जब आदमी जीने की आस और मौत के अंदेशे की खाई के बीच की महज एक छोटी पगडंडी पर चलने को मजबूर हो। सामाजिक मनोविज्ञान के लिए भी शायद ही ऐसा कोई काल रहा होगा। लिहाजा उसे भी यह देखना होगा कि इतने दीर्घकाल तक, इतने दबाव के बीच मानव स्वभाव में और तमाम मौलिक व मानव-निर्मित संस्थाओं में क्या बदलाव आता है, जिनके स्वजन अस्पताल में या अस्पताल के बाहर ऑक्सीजन या दवा के अभाव में दम तोड़ चुके हैं, उनका तो राज्य और उसकी संस्थाओं पर से भरोसा उठ चुका है, उन पारिवारिक रिश्तों का क्या स्वरूप होगा, जिनमें डर के मारे स्वजन मरने के बाद क्रियाकर्म में भी शामिल होने से गुरेज करने लगे। कोरोना खत्म हो या बना रहे, यह दुनिया पहले जैसी नहीं रहेगी। व्यक्तिगत, संस्थागत, पारिवारिक और सामूहिक रिश्ते जिजीविषा के आधार पर बनेंगे, न कि नैतिकता के मानदंडों पर।
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