Saturday, 24 July 2021
किसानों की समस्या का समाधान होना चाहिए
सरकार ने मंगलवार को कहा कि विभिन्न योजनाओं के तहत केंद्र एवं राज्यों की एजेंसियों द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर अनाज की खरीद की जा रही है तथा किसान संगठनों को तीन नए केंद्रीय कृषि कानूनों को रद्द करने की मांग पर जोर देने की बजाय कृषि अधिनियमों के हिस्सों पर उनकी चिंताओं को लेकर चर्चा करनी चाहिए ताकि उनका समाधान निकाला जा सके। लोकसभा में मनीष तिवारी तथा बेनी बहेनन के प्रश्न के लिखित उत्तर में कृषि एवं किसान कल्याण मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने यह बात कही। सदस्यों ने तीन केंद्रीय कृषि कानूनों का उल्लेख करते हुए पूछा था कि क्या किसानों की मांगों को पूरा करने के लिए केंद्र सरकार द्वारा किन्हीं विशिष्ट प्रस्तावों पर विचार-विमर्श किया जा रहा है? इस पर कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने कहा कि तीन कृषि कानूनों से जुड़े मुद्दों के समाधान के लिए सरकार और किसान संगठनों के बीच अभी तक 11 दौर की वार्ता हुई है। संसद का मानसून सत्र शुरू हो चुका है। दोनों सदनों में किसान आंदोलन का मुद्दा जोरशोर से उठा। इस आंदोलन को आठ महीने से ज्यादा हो गए हैं। किसानों का अब तक जो जज्बा देखने को मिला है, उसे देखते हुए तो लगता है कि किसान संसद के बाहर जाए बिना मानेंगे नहीं। इस बीच दूसरे प्रदेशों से किसान दिल्ली की सीमा पर पहुंचना जारी है। ऐसे में किसानों को दिल्ली में घुसने से रोक पाना पुलिस के लिए बड़ा सिरदर्द बन गया है। पुलिस का अपने पक्ष में यह तर्क हो सकता है कि प्रदर्शन के नाम पर कहीं वैसी स्थिति खड़ी न हो जाए जैसी गत 26 जनवरी को बन गई थी। उस दिन किसान आंदोलन में घुस गए शरारती तत्वों ने लाल किले सहित कई इलाकों में उत्पात मचाया था। जाहिर है, इससे एक जायज किसान आंदोलन की साख को बट्टा लगना ही था। यह भी सही है कि राजधानी में कानून-व्यवस्था को लेकर पुलिस किसी तरह का जोखिम मोल नहीं ले सकती। संयुक्त किसान मोर्चे ने रोजाना दो सौ किसानों को संसद के बाहर धरना-प्रदर्शन करने की इजाजत मांगी है। लेकिन पुलिस दो सौ किसानों को भी जमा होने देने में बड़ा खतरा मान रही है। अब तक के आंदोलन से साफ हो चुका है कि किसान आसानी से तो नहीं लौटने वाले। दूसरी तरफ सरकार भी हठधर्मिता पर उतरी हुई है और बार-बार दोहरा रही है कि कुछ भी हो कानून वापस नहीं लेंगे। इससे तो तकरार और बढ़ना तय है। किसान आंदोलन में फूट पैदा करने की रणनीति की बजाय वार्ता की कोशिशें ही कोई रास्ता निकाल सकती हैं। यह नहीं माना जाना चाहिए कि मौका हाथ से निकल चुका है। दोनों ही पक्षों को कुछ झुकते हुए बातचीत फिर से शुरू करनी ही होगी। इतिहास गवाह है कि बातचीत से बड़े से बड़े गतिरोध दूर हो जाते हैं। लेकिन किसान आंदोलन के मामले में अब तक देखने में आया है कि सरकार का रुख उदारता का नहीं, बल्कि सख्ती का है। उसका रवैया सबक सिखाने वाला है पर यह नहीं भूलना चाहिए कि फूट डालो और राज करो करने की नीति से बुनियादी मुद्दों का हल नहीं निकलता। अगर कृषि कानून वाकई किसानों के हित में होते तो क्यों किसान इस गर्मी, सर्दी, बरसात, कोविड के समय में पिछले आठ महीने से आंदोलन कर रहे होते?
-अनिल नरेन्द्र
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment