Tuesday, 19 October 2021
तालिबान-आईएस के बीच झगड़े की जड़
अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी के बाद इस्लामिक स्टेट (आईएस) वहां बड़ा खतरा बनकर उभरा है। तालिबान सरकार के सामने वैश्विक मान्यता पाने के साथ-साथ आईएस से निपटने की दोहरी चुनौती है। अमेरिका के साथ 2020 में हुए समझौते में तालिबान ने आतंकी गुटों पर लगाम लगाने और अफगान जमीन का दूसरे देशों पर हमलों के लिए इस्तेमाल न होने का वादा किया था। लेकिन मौजूदा हालात में आईएस के बढ़ते हमलों के बीच यह कतई साफ नहीं है कि तालिबान अपने इस वादे पर खरा कैसे उतरेगा? जानकारों का कहना है कि वैसे तालिबान और आईएस दोनों ही इस्लामी कानून के तहत कट्टरपंथी शासन के पैरोकार हैं। लेकिन इनमें एक बुनियादी वैचारिक अंतर के कारण दोनों के बीच वैमनस्यता है। दरअसल तालिबान कहता है कि वह अफगानिस्तान की सीमा में इस्लामी राज बना रहे हैं। वहीं आईएस पूरी दुनिया में इस्लामी खलीफा का राज चाहता है। यह तालिबान के राष्ट्रवादी लक्ष्यों को खारिज करता है। कमोबेश ऐसे ही कारणों से आईएस अलकायदा का कट्टर दुश्मन रहा है। लांग वार जनरल के बिल रोजिरो का मानना है कि तालिबान आईएस पर काबू पा सकता है। इसके लिए उसे अमेरिकी हवाई हमलों की भी जरूरत नहीं है। उनके मुताबिक आईएस के लिए सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि उसे पाकिस्तान और ईरान में शरण और समर्थन नहीं मिलेगा। प्रशासन पर पकड़, समावेशी सरकार से आईएस पर जीत संभवत आतंकवाद से प्रशासन की ओर बढ़ते तालिबान की समावेशी सरकार पर ध्यान देना होगा। हजारा, शिया जैसे अल्पसंख्यकों को बचाना होगा। उन्होंने हिंसा झेली है और अब आईएस भी उन्हें निशाना बना रहा है। जानकारों का मानना है कि तालिबान के लिए मौका है कि वह अल्पसंख्यकों के साथ खड़ा हों और प्रशासन पर पकड़ वाली छवि पेश करें, ताकि लोगों का झुकाव आईएस की तरफ न हो। अंतर्राष्ट्रीय संकट समूह के सलाहकार इब्राहिम बहिस का कहना है कि अफगानिस्तान में हमले करके आईएस ने तालिबान को तगड़ा झटका दिया है और खतरा थोड़े समय का नहीं है। आईएस का तात्कालिक मकसद तालिबान को अस्थिर कर मुल्क की हिफाजत करने वाली छवि तोड़ना है। यही वजह है कि वह जनजातियों और अन्य छोटे समूहों को साथ मिला रहा है।
-अनिल नरेन्द्र
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